Wednesday 18 November 2015

शायरी...

तेरे प्यार के दलदल में फसता जा रहा हूँ,
न कोई बचाने वाला है,
ना ही मैं बचाने के लिए आवाज़ लगा रहा हूँ |

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जो तुम सामने नहीं हो तो लगता है
आँखे कुछ बेरोजगार सी है|

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न कर सावन का इंतज़ार...
भीगाकर ये सुखा ख़त्म कर दे,
मुझे अपनी मोहब्बत से तरबतर कर दे,
आ, और मेरे इस मकान को अब घर कर दे...

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अपनी दोस्ती ही अच्छी थी पर
मुझे तुमसे मोहब्बत है,
ये तुम जान गयी और फिर मेरी जान गयी|
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मोहब्बत न हुई गुनाह हो गया,
करके तुमसे मैं तबाह हो गया,
कोशिशे लाख की संभलने की,
पर देखा तुम्हे तो इश्क बेपनाह हो गया|

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सर्दियां तो अभी शुरू होंगी लेकिन
तेरी यादो का कोहरा तो सालो से है...

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हमेशा ख़ामोशी ठीक नहीं है,
शोर भी कभी कभी सुकून देता है...

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मैं भी यही हूँ तू भी यही है,
किरदार कुछ नए पर कहानी वही है,
कि होके भी यहाँ तू मेरी नहीं है...

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क्या मुकाबला करेंगे उस मजनूं या रांझा का,
हमे तो प्यार में एक थप्पड़ भी नसीब नहीं हुआ...

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झुकी नजरो से ही सही, बस जरा देख ले उन्हें
तो होता है हंगामा,
और वो नाज़नीं अपने हुस्न से 
लाखो क़त्ल करके भी गुमनाम है...

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आखिर क्यों मैं बात करूँ?
करूँ भी तो किससे करूँ?
कोई मिला भी तो क्या करूँ?
क्या करूँ वो तो पता है...बात तेरी ही होगी...
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