Saturday 21 November 2015

शायरी २ ...

गम ये हैं की तुझसे मिलना ही क्यों हुआ
ख़ुशी इस बात की है कि तुझसे मिलना हुआ...

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तेरी यादो का मयखाने से रिश्ता कुछ समझ नहीं आता
दिन तो जैसे तैसे गुज़र जाते हैं
शाम होते ही दोनों नज़र आते हैं...

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ये सर्द कोहरा तो चला जाएगा
सीने की धुंध कब मिटेगी
कब सामने आएगी तू...

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हादसों की आदत नहीं है मुझे
एक तुझसे मिलना हुआ फिर कभी उभर ही नहीं पाए

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पूछा किसी ने क्यों जुदा हो दुनिया से
नादां दिल धड़का एक तेरे नाम से
खामोश लब समझदार थे लेकिन, कहा 
अच्छी मेरी गुमनामी, न की होने तेरे बदनाम से...

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शराब होती तो शायद संभल जाते
पर अब तक लड़खड़ा रहे हैं, ये जो नशा तेरा हुआ...

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तेरी यादो के समंदर में तैरते जा रहा हूँ
साहिलों की तलाश से बेपरवाही कर ली जो मैंने...

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तुझसे मिलना हुआ तो शायर हुए
वरना नाकामी किसे पसंद हैं...

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कागज़ की कश्ती थी फिर भी बैठ गए उसपे
किसी ने कह जो दिया था कि उस पार तू खड़ी हैं...
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